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शनिवार, 19 नवंबर 2011

हम भारत के भाग्य विधाता

१५ अगस्त १९४७,२०० वर्षों की गुलामी से हमारा देश आजाद हुआ, हम आज भी इस आजादी के लिए शहीद होने वालों की वीरगाथाएं सुनते-सुनाते हैं और गर्वित होते है  के  हम देशभक्त हैं. किन्तु लगातार बिगड़ते हालातों में विगत १५-२० वर्षों से हर मध्यमवर्गी यही सोच रहा है की क्या इसी को आजादी कहते हैं? विभाजन के मृतकों की कब्र पर हम आज भी जाती और धर्मं  के नाम पर लड़ रहे हैं. २जून १९४७ को जब देश के विभाजन का फैसला होना था तब जिस हस्ती की एक हुंकार पर सारा देश विभाजन के विरोध में एक हो  जाता वह आवाज मूक थी, उसका मौनव्रत था, उस दिन सोमवार जो था, और फैसला हो गया. समझ में नहीं आता की हर वर्ष हम आजादी का जश्न मनाएं या बंटवारे की मौतों का मातम,......
देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने हेतु लगातार सरकारों द्वारा रोजगार,कृषि,शिक्षा,स्वस्थ्य की बड़ी-बड़ी योजनाओं को लागु किया गया किन्तु इन क्षेत्रों में हुए विकास की बानगी देखिये..... शिक्षा है - शाला भवन,शिक्षक नहीं ; स्वास्थय विभाग है - दवाइयां नहीं; डॉक्टर हैं - गाँव में (देश की ८०% आबादी) जाते नहीं, गोया ग्रामीण बीमार पड़ते ही नहीं; उन्नत कृषि योजना तो है पर लाभ लेने का आधार है- कर्ज. सरकार साहूकारी की परंपरा पर कायम है और किसान आत्महत्या की; बेरोजगारों की दौड़ सिर्फ रोजगार कार्यालय की अंतहीन कतार तक. 
देश कोई भी हो युवा उस की ऊर्जा, ताकत होते हैं. हमारे देश के हालात ये हैं की ३ करोड़ युवा काम की तलाश में अपने मूल निवास से पलायन करने को मजबूर हैं. बिना जड़ों के ये पोधे शायद ही कभी पूरी तरह फलें फूलें. अर्थात स्थानीय परिस्थितियों पर आधारित उपयुक्त रोजगार लगभग नहीं के बराबर है.
बीपीएल, एपीएल सर्वेक्षण के आधार पर मुफ्त अनाज, मुफ्त आवास, मनरेगा आदि योजनाओं के भ्रष्ट कार्यान्वयन से मरणासन्न गरीबों को कृत्रिम श्वसन से सिर्फ जीवित रखा जा रहा है, ताकि योजनाएं चलती रहें, विकास हो या न हो. ये है भारत की विकास यात्रा.
सारांश ये है की देश अंग्रेजों से स्वतंत्र हो गया पर गुलाम हम आज भी हैं, भ्रष्टाचार के. और यही वजह है की गाँव, शहर दोनों जगह समेकित विकास नहीं दीखता. तथाकथित विकसित शहरों का प्रदुषण और शोर हमारे लिए विकास का पर्याय बन गए हैं. 
सही मायनों में इस देश के आम आदमी के आजीवन जी-तोड़ संघर्ष के भरोसे ही ये देश चल रहा है.

1 टिप्पणी:

Sadhana Vaid ने कहा…

गहन चिंतन पर आधारित एक बहुत ही विचारोत्तेजक एवं यथार्थपरक आलेख संगीता जी ! विडम्बना यह है कि मुट्ठी भर संवेदनाशून्य, स्वार्थी एवं भ्रष्ट सत्ताधारियों के हाथों में शासन की बागडोर सौंपने का हर्जाना भुगतने के लिये हम आम भारतीय ही विवश हैं क्योंकि ऐसे नेताओं को चुनने के लिये ज़िम्मेदार भी तो हम ही हैं !

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