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मंगलवार, 27 मार्च 2012

हमारा आज

देश किन्हीं सीमाओं से घिरे क्षेत्र का नाम नहीं होता,देश तो वहाँ की आवाम से जाना जाता है, संस्कृति का परिचायक होता है ।आजादी के बाद ऐसे ही कुछ विचार थे आम जनता के और जनता नागरिक की तरह सोचने वाले  नेता चुनती रही और हारती रही। आज यदि हम अपने भारत को देखें तो वह मात्र नेताओं की अठखेलियों की समर भूमि ही तो है।हर राजनीतिज्ञ यही घोषणा तो करता फिर रहा है कि यदि हमारी पार्टी जीती तो  टैक्स कम हो जायेगा ,पेत्त्रोलियम उत्पाद के दामों में कमी की जाएगी,आदि-आदि।नहीं जीते तो फिर इस देश कि आवाम से क्या वास्ता, नेताओं का तो गुजारा हो ही जाता है । कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्या हम इस देश के नहीं हो पाए हैं ?बढती अराजकता ,असीमित भ्रष्टाचार ,वोट बैंक कि आढ़ में धर्म के रूप को विकृत करते ये नेता ,यदि देश भक्ति के यही मायने हैं  तो फिर क्या कहा जाये ।जनता मात्र वोट कि तरह गिनी जाती है और हर शख्स अपनी कुर्सी के लालच में बिकने को तैयार है , भूखों मरने के हालत हो गए हैं तभी तो सुरक्षा तक दांव पर लगी है ।जहाँ अधिकार है वहां कर्त्तव्य का आभाव है ,क्या यही है भारत के भाग्य में ?हुकूमत का नशा इस तरह सर चढ़कर बोल रहा है कि ये नेता खुद को परमेश्वर मानने लगे हैं।हम पढ़े-लिखे लोग परिचर्चाओं को सुनकर बहस के मुद्दे तलाशते हैं अपने कर्त्तव्य कि इतिश्री कर लेते हैं।
                पर अब कुछ समय कि ही बात है ऐसा लगता है थोडा वक्त और लगेगा पर आने वाली पीढ़ी यह सब बर्दाश्त नहीं करेगी ऐसा लगता है ?किसी को तो चाणक्य कि भूमिका निबाहनी होगी और भारत का परचम फहराना होगा ।

मंगलवार, 20 मार्च 2012

हम कब होंगे आजाद

न राह नजर आती हैं न मंजिलें ,न रौशनी का कोई मंजर नजर आता है ,
भटक न जाये खलाओं(शून्य)में कहीं ;मेरा वतन यूँ बेजार नजर आता है.
दफ्न होते जा रहें हैं गरीबों के रूहानी नगमें ;हर जवान आँखे मायूस हैं ,
फजायें शोलों सी बरसतीं हें हरदम;
झुलसे जा रहे हैं मेरे वतन के लोग ,क्यूँ मेरा वतन बेजार नजर आता है,
हर ऊंचे मकां की दहलीज तले;किसी भूखे की खोखली सी सदा गूंजती है;
जीवन आँखें खोल भी न पाए  कि हंसती हुई मौत के क़दमों की आहट गुजर जाती है ;
हर ओर इंसानियत की आहों का शोर है  जुल्म ओर जालिमों का जोर है ,
फाकापरास्ती  बांहें फैलाये पसरती जा रही है ,मेरा वतन यूँ बेजार नजर आता है.
ख़त्म होंगे क्या कभी मायूस उमंगों के फ़साने ,मंजिल मिलेगी क्या गुमशुदा से ख़्वाबों की,
फिर से आबाद होंगी मोहब्बत ताज के गलियारों में ,हौले से मेरा दिल भी बुदबुदाता है ,
 

मंगलवार, 13 मार्च 2012

दायरा

दर्द की हर परिधि के पार जाना चाहती हूँ ,
हर झूठी संवेदना से दूर जाना चाहती हूँ ,
चाहती हूँ तैर जाना जीवन की इस अम्बुधि में ,
किसी व्यथा से अब नहीं  व्यथित होना चाहती हूँ ...
नींद सुख की एक ही सही पर कुछ विश्राम चाहती हूँ...
अन्धकार उर में समेटे जीवन की इस पगडण्डी पर ,
कुछ उजले स्वप्नों से तिमिर को भी हर सकूं मैं,
कोई स्वप्न फिर न छला जाये ;संग कोई चले ,
अब असीमित आकाश में प्राणों के पंख तौलना चाहती हूँ .
जीवन की अंतिम दस्तक पर मृत्यु का यशगान करूँ जब,
 गूंज उठे फिर मुक्ति गीत ,और सृजन की तैयारी हो ,
अमर  ध्येय हो सबका जग में; सफल मनोरथ हों मानस के ,
अपने आराधन से वर में जीवन यज्ञ की शत शत आहुति में ,
तूफानों को मुस्कानों में ;वीरानों को उद्यानों में ,
अपमानों को सम्मानों में ,परिणित कर हँसते -हँसते,
जीवन की इस अम्बुधि से होम करना चाहती हूँ .  
 
 
   

मंगलवार, 6 मार्च 2012

एक निराला फाग मनाएं

                                              
तरल आंसुओं की लड़ियों में भीगे रंग जरा मुस्काएं ,
नीले तारों से मुग्ध हों  उन आँखों का निर्माण करें,
जहाँ  बसें  नित  स्वप्न  अनोखे , उम्मीदों के  सुमन  मुस्काएं ..........
दीप जलें तो धवल तिमिर हो  , मेघों  की  भैरवी  से गूंजे  गगन शिखर की सभी दिशाएं,,,,,
दैव  सांत्वना से आँचल का भीगा छोर फिर मुस्काए ,अब ऐसे वह रंग बनाएं ..........
एक निराला फाग मनाएं,
शयन करे अब चिर निद्रा में मानस मन का ताप ,वेदनाओं का अंत हो भूख करे एकाकी विलाप...........
अपने नेह  दीपों से आलोकित हो  महके जीवन हर  पंथ ,
पीड़ा हों सब संज्ञाहीन  मानवता करे यश गान 
सुर लहरियों से ऐसे सजाएं,एक निराला फाग मनाएं .......
दें असीम साधनों  के उपहार मानस रत्न सजा सहेजें ,
अपरिचित भी मीत  बनें और क्या हम ऐसा चलन चलेंगे ,
अलसाई  सी आँखों में रवि की नई मनुहार जगाएं ,
एक निराला फाग मनाएं ,ऐसा ही एक रंग बनायें........................................
                            होली की असीम शुभकामनाओं  के साथ