देश किन्हीं सीमाओं से घिरे क्षेत्र का नाम नहीं होता,देश तो वहाँ की आवाम से जाना जाता है, संस्कृति का परिचायक होता है ।आजादी के बाद ऐसे ही कुछ विचार थे आम जनता के और जनता नागरिक की तरह सोचने वाले नेता चुनती रही और हारती रही। आज यदि हम अपने भारत को देखें तो वह मात्र नेताओं की अठखेलियों की समर भूमि ही तो है।हर राजनीतिज्ञ यही घोषणा तो करता फिर रहा है कि यदि हमारी पार्टी जीती तो टैक्स कम हो जायेगा ,पेत्त्रोलियम उत्पाद के दामों में कमी की जाएगी,आदि-आदि।नहीं जीते तो फिर इस देश कि आवाम से क्या वास्ता, नेताओं का तो गुजारा हो ही जाता है । कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्या हम इस देश के नहीं हो पाए हैं ?बढती अराजकता ,असीमित भ्रष्टाचार ,वोट बैंक कि आढ़ में धर्म के रूप को विकृत करते ये नेता ,यदि देश भक्ति के यही मायने हैं तो फिर क्या कहा जाये ।जनता मात्र वोट कि तरह गिनी जाती है और हर शख्स अपनी कुर्सी के लालच में बिकने को तैयार है , भूखों मरने के हालत हो गए हैं तभी तो सुरक्षा तक दांव पर लगी है ।जहाँ अधिकार है वहां कर्त्तव्य का आभाव है ,क्या यही है भारत के भाग्य में ?हुकूमत का नशा इस तरह सर चढ़कर बोल रहा है कि ये नेता खुद को परमेश्वर मानने लगे हैं।हम पढ़े-लिखे लोग परिचर्चाओं को सुनकर बहस के मुद्दे तलाशते हैं अपने कर्त्तव्य कि इतिश्री कर लेते हैं।
पर अब कुछ समय कि ही बात है ऐसा लगता है थोडा वक्त और लगेगा पर आने वाली पीढ़ी यह सब बर्दाश्त नहीं करेगी ऐसा लगता है ?किसी को तो चाणक्य कि भूमिका निबाहनी होगी और भारत का परचम फहराना होगा ।
पर अब कुछ समय कि ही बात है ऐसा लगता है थोडा वक्त और लगेगा पर आने वाली पीढ़ी यह सब बर्दाश्त नहीं करेगी ऐसा लगता है ?किसी को तो चाणक्य कि भूमिका निबाहनी होगी और भारत का परचम फहराना होगा ।