सागर की लहरों को क्या समझूँ में,तुम्हारी विकलता या तुम्हारा उल्लास.
स्वयं में सिमट कर तुम तुम न रहे,तुम में बन गए ,
इस स्वयं को क्या समझू में तुम्हारी विकलता,या खुद तुम्हारा ही उल्लास,
भावनाओं को आधार बना तुम बढ़ते चले नए क्षितिज की ओर ,
जहाँ था तुम्हारा निज स्वप्निल संसार .
पर क्या कर पाए रंगों से सुरंजित अपने मधुर स्वप्नों को साकार ;
तुम्हारी इस प्रेरणा को क्या कहूँ में तुम्हारी चंचलता या,तुम्हारा अहंकार
स्वयं में सिमट कर तुम तुम न रहे,तुम में बन गए ,
इस स्वयं को क्या समझू में तुम्हारी विकलता,या खुद तुम्हारा ही उल्लास,
भावनाओं को आधार बना तुम बढ़ते चले नए क्षितिज की ओर ,
जहाँ था तुम्हारा निज स्वप्निल संसार .
पर क्या कर पाए रंगों से सुरंजित अपने मधुर स्वप्नों को साकार ;
तुम्हारी इस प्रेरणा को क्या कहूँ में तुम्हारी चंचलता या,तुम्हारा अहंकार
1 टिप्पणी:
बहुत भावभीनी रचना है संगीता ! बहुत अच्छी लगी ! आगे भी ऐसी ही खूबसूरत रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी यही आशा है ! बधाई एवं शुभकामनायें !
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