कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने ,
नहीं जानती तुझ बिन जननी कैसे पंथ चलूं एकाकी ,
तुझसे स्वर्ग रिझाना सीखा मन की तान सुनाना सीखा ;
मेरी जननी तेरे ये सुर इस दामन में ऐसे भर लूँ ;
देखूं जो दुखियारे मन को बस तेरा में अनुसरण कर लूँ .......................
सुखों की याद आंसू ले आती दुःख दिल को भारी कर जाता ;
माना मैंने जननी मेरा नाता तुझसे बस इतना ही था ;
देस पराये जाना मेरा ये तेरा संकल्प ही था ,
इन यादों के बंधन से कैसे खुद को आजाद करूँ में .
कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने,
सुन उर की व्याकुल धड़कन तुम मेरा हर विषाद हर लेतीं,
जग के तापों की झुलसन में भी शीतल एहसास करातीं ,
नेत्र प्रतीक्षा में आतुर हों मेरा पंथ निहारा करतीं ,
देवत्व की सी छाया तुम ,क्या में तुझ जैसी बन पाई ?
कौन बताये ............................................................
कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने ,
नहीं जानती तुझ बिन जननी पंथ चलूँ कैसे एकाकी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
27 टिप्पणियां:
कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने ,
नहीं जानती तुझ बिन जननी पंथ चलूँ कैसे एकाकी ,
बहुत बढ़िया प्रस्तुति, सुंदर रचना,.....संगीता जी,...
MY RECENT POST.....काव्यान्जलि.....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
बहुत सुंदर संगीता जी....
बहुत प्यारे भाव...
सादर.
vaah!Maa ke liye bahut pyari kavita...dil ko chhoo gayee.
देवत्व की सी छाया तुम ,क्या में तुझ जैसी बन पाई ?
हर बेटी अपनी माँ की परछाई होती है... बहुत सुन्दर कोमल भावयुक्त रचना
bahut sundar..
बहुत सुन्दर रचना
bahut sundar abhivyakti,sangitaji
माँ ...मेरा भी नमन स्वीकार करो ...!!!
एक अपील ...सिर्फ एक बार ?
भावो का सुन्दर समायोजन......
एक माँ की कमी जीवन में कभी पूरी नहीं हो सकती ......बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति संगीताजी !
सूचनार्थ: ब्लॉग4वार्ता के पाठकों के लिए खुशखबरी है कि वार्ता का प्रकाशन नित्य प्रिंट मीडिया में भी किया जा रहा है, जिससे चिट्ठाकारों को अधिक पाठक उपलब्ध हो सकें।
बहुत सुन्दर लिखा है संगीता ! मर्म को स्पर्श करती भीगी-भीगी सी कोमल रचना ! शुभकामनायें !
निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने,.................अच्छी लगी
bhawmayee rachna.....
how exactly you have expressed the feelings of entire life that we fail to gather but we really want to!
we should love our dear ones in their life time to the utmost, nothing is more precious than that
बहुत भावमयी मर्मस्पर्शी रचना...
कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने ,
नहीं जानती तुझ बिन जननी पंथ चलूँ कैसे एकाकी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बहुत सुन्दर व सार्थिक अभिव्यक्ति।
maa....... pyari maaa:)
नहीं जानती तुझ बिन जननी कैसे पंथ चलूं एकाकी!
...जननी की कमी को कौन पूरा कर सकता है?..अकेलापन ही महसूस होता है!...उत्तम अभिव्यक्ति, आभार!
कभी निराशा ने जब घेरा नेह अनुपम बरसाया तूने ,
नहीं जानती तुझ बिन जननी पंथ चलूँ कैसे एकाकी ,,,,,
माँ सा दूजा कहाँ मिलता है जीवन में ... पर फिर भी माँ ये सिखा जाती है की कैसे चला जाता है अकेले भी ...
शाश्वत की काव्यात्मक अभिव्यक्ति...
बहुत सुंदर रचना ......
आज तलक वो मद्धम स्वर
कुछ याद दिलाये कानों में
मीठी मीठी लोरी की धुन
आज भी आये, कानों में !
आज जब कभी नींद ना आये,कौन सुनाये मुझको गीत !
काश कहीं से मना के लायें , मेरी माँ को , मेरे गीत !
देस पराये जाना मेरा ये तेरा संकल्प ही था ,
इन यादों के बंधन से कैसे खुद को आजाद करूँ में .
bahut hi sundar aur bhavpoorn rachana .....badhai ke sath abhar bhi Sangeeta ji .
♥
सुन उर की व्याकुल धड़कन तुम मेरा हर विषाद हर लेतीं
जग के तापों की झुलसन में भी शीतल एहसास करातीं
सच ! मां के पास ऐसा ही महसूस होता है मुझे हमेशा …
आदरणीया संगीता जी
नमस्कार !
बहुत भाव पूर्ण है आपका गीत ! बहुत सुंदर !
मां जैसा दुनिया में कोई कहां !
ओ मां तुझे सलाम !!
भगवान से प्रार्थना है किसी से उसकी मां न छीने …
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
हृदयस्पर्शी रचना है। टंकण में कुछ शब्द अव्यवस्थित हो गये लगते हैं, सम्भव हो तो ठीक कर लीजिये।
बहुत ही भावपूर्ण कविता |ब्लॉग पर आने के लिए आभार
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