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बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

                                     क्यूँ 


क्यूँ, हर अंतराल के बाद दस्तक देते हो 
आजमाने की हर कोशिश करते हो, क्यूँ 
मुझे भी संभलने में खुद को आजमाने में 
तकलीफ होती है ,
ऐ जानते हुए भी 
सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए 




रविवार, 14 अगस्त 2016

कहाँ पर बोलना है और कहाँ पर बोल जाते हैं
 जहाँ खामोश रहना है वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।
 कटा जब शीश सैनिक का तो हम खामोश रहते हैं
कटा एक सीन पिक्चर का तो सारे बोल जाते हैं।।
 बहुत ऊँची दुकानों में कटाते जेब सब अपनी
मगर मज़दूर माँगेगा तो सिक्के बोल जाते हैं।।
 अगर मखमल करे गलती तो कोई कुछ नहीँ कहता
 फटी चादर की गलती हो तो सारे बोल जाते हैं।।
हवाओं की तबाही को सभी चुपचाप सहते हैं
च़रागों से हुई गलती तो सारे बोल जाते हैं।।
बनाते फिरते हैं रिश्ते जमाने भर से हम अक्सर।
 मगर घर में जरूरत हो तो रिश्ते बोल जाते हैं।।!!!!

सोमवार, 13 जनवरी 2014

गुज़री हुई वक्त की खुमारियां


 ज़र्द चेहरे सी हैं वक्त की ख़ुमारियां ,
 कुछ बिछड़े हुए रिश्तों के साये भी हैं ,
कुछ फूल कुछ कांटे तमन्नाएँ भी हैं ,
रेशमी ख़्वाबों की कसमसाहट सी है
क़दमों के निशां भी हैं छूटे हुए रास्तों पर ,
सफ़र खत्म होने को है पर रहगुजर ख़त्म होती नहीं :::::::::::;

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

समय का मरहम

कहते हैं कि वक्त हर जख्म का इलाज होता है पर मैंने तो यही महसूस किया है कि वक्त सभी घावों को सहेजता है ,कि आने वाला समय इन वेदनाओं को याद कर हम सहने के आदि हो जाएँ । यही कुछ आज की स्थितियां बयां करती नजर आ रही हैं । लोकपाल का बदला हुआ स्वरूप उस शख्सियत के समर्थन को हासिल करने में कामयाब हो गया जो उसके खिलाफ था । क्या ये वक्त के तकाजे हैं या कोई मजबूरी ?
              आने वाले समय में क्या  बीता हुआ  जायेगा ,जिससे गरीबों को और गरीबी का अहसास कराया जायेगा ,कि तुम एक रुपए किलो का चांवल, मटर की दाल  की पात्रता रखते हो या मुफ्त में दिया जायेगा ।
                इससे तो अच्छा होता कि उन्हें काम मुहैया कराया जाता और सस्ते में राशन उपलब्ध कराया जाता जिससे कि वे भी स्वाभिमान के साथ जिये न कि सरकार कि कृपाओं पर ।  
 

मंगलवार, 12 मार्च 2013

जिंदगी भी बाकी न रही

वो शोखियों में लिपटी मुस्कान न रही ,
तबस्सुम में भी दिलकशी बाकी न रही .............
सीने से लगाये हूँ उम्मीदों की तलाश ,
कि खामोशियों में भी अब बैचेनी न रही ;;;;;;;;;;;;;
माना की जिंदगी ही तगाफुल ही रही मुझसे हमेशा ,,
कंधों पर सजाती रही है बारे-मसाइब (मुसीबते) हमेशा
 क्यूँ खोजती हूँ नए तर्ज के नए  गीत हमेशा ;;;;;;;;;
जब मेरी जीस्त के मुकद्दर में ही रोशनी न रही ::::::::::::::::;
अब भी जमाने की तल्खियों ने पुकारा है मुझे ,
जलती हुई  राहों पर सिसकती हुई रूहों ने पुकारा है मुझे ,,,,,,,
जाता हुआ वक्त भी दिखाई देता है ,कुछ साए भी नजर आते हैं ;;;;;;;;;
उम्र भर रेंगते रहने की सजा सुनाई है मुझे ;;;;;;;;;;;;;
कुछ भी तो न रहा अब जिंदगी भी बाकी न रही::::::::::::::::::::
वो शोखियों में लिपटी मुस्कान न रही 

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

दुआओं से दामन तेरा आबाद होगा अब भी ,
रहगुजर पर टिकी होगी खामोश नजर तेरी अब भी ,
आसमां से टूटे तारों से आज भी मेरी खैरियत ही चाही होगी ,
तभी तो मैं हालत-ऐ -जुल्मत में रोशनी की तरह आबाद हूँ ,
तू मेरी माँ है ,जिसके मुकददर की इबारत हूँ में अब भी :::::
रात की सतह पर उभरे हुए तेरे चेहरे पर सादा सी नजर ,
आज भी मेरी आरजुओं के एवान सजाती है ,
चंद घडियों के लिए ही सही मेरी इबादत असर ले आये तो सही,
कि, खुदा बक्श दे मेरी माँ मुझे पल भर के लिए ही सही ,
तेरी जागी हुई रातों का सिला दे दूँ मैं तुझे ,
रूहे तक्सीदो वफा (पवित्र आत्मा) तेरे सजदों में झुका है मेरा वजूद तमाम अब भी .........
संगीता

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

कोशिश

आज फिर हसरतों ने दिल में समाने की कोशिश की है :::::::
आज फिर पीर ने सागर सी गहरे में उतर जाने की कोशिश की है,
लहरों की मानिंद चाहतों ने परेशां कर रक्खा है ::::::::::::::::
की डूबे हुए साहिलों पर ठहरने की कोशिश की है::::::::::::::

अब भी जिन्दा हैं मेरी पलकों की गलियों में यादों के कुछ हंसीं मंजर,
अब भी अंगड़ाई लेते हुए ख़्वाब गाहे-बगाहे चले आते हैं ::::::::::::::::::::::
अब भी सुकून तलाशते हुए खो जाती हूँ उस रह्गुजर में ::::::::::::::::::
कि जिन्दा होने की तस्कीन कर लेने की कोशिश की है:::::::::::::::::::::::

 बार-बार गर्दन झुकाई है, बार-बार तलाशा है वो चेहरा दिल के आईने में::::::::::::::
आसमां के सितारों को अब भी कई रातों जाग-जाग कर गिना है मेंने ::::::::
फिर से अश्कों को अपने दामन में समेटा है मैंने :::::::::::::::::::::
आज फिर मुस्कानों से जख्मों को सीने की कोशिश की है ::::::::::::::::::::::::::::::::